हमारे बारे में

सन् 1823 से लगभग छः दशकों तक, गर्वनर जनरल और फिर भारत के वाइसराय शिमला में अपने ग्रीष्मकालीन प्रवास के दौरान एक अनुपयुक्त आवास से दूसरे आवास में बदलते रहे। लार्ड लिटन ने (1876-80) नया आवास बनाने के लिए आब्जरवेटरी हिल को चुना। इस पहाड़ी का नाम आब्ज़रवेटरी हाउस की वजह से पड़ा जिसका निर्माण सन् 1840 में कैप्टन जे.टी. बालू ने कराया था। कालांतर में आब्ज़रवेटरी हाउस वाइसराय के निजी सचिव का आवास बना। आब्ज़रवेटरी हिल ऐसा एक जल-विभाजक स्थल है जहां से जल-प्रवाह भारत के दोनों ओर बहते हैं। इसके ओर का पानी बंगाल की खाड़ी तक जाता है और दूसरी तरफ का पानी अरब सागर में जा मिलता है।
नए वाइसराय निवास के प्रारंभिक नक्शे रायल इंजीनियर्स के कैप्टन एच.एच. कोल ने तैयार किए थे। ये नक्शे काम के सनकी वाइसराय लार्ड लिटन को सन् 1878 में शिमला ललित कला प्रदर्शनी के मौके पर प्रस्तुत किए गये थे। तथापि लार्ड डफरिन (1884-88) ने इस विषय में विशेष रूचि ली। उसने भारत के राज्य सचिव लार्ड रैंडाल्फ चर्चिल को अड़तीस लाख रूपए के खर्च की परियोजना अनुमति के लिए रखी। इस संपदा के रखरखाव पर डेढ़ लाख रूपए वार्षिक व्यय का अनुमान था।
वाइसराय का सपना साकार करने के लिए हेनरी इरविन को वास्तुकार और निर्माण कार्य का मुख्य अधीक्षक नियुक्त किया गया था। एफ.बी हैबर्ट और एल.एम. सेंट क्लेयर ने कार्यपालक अभियंता के रूप में सहयोग दिया था। उनके साथ तीन सहायक अभियंता थे- ए.स्काट, टी मैक्पर्सन और टी.एस. इंगलिश। मोटे तौर पर लाज का खाका लार्ड डफरिन ने सुझाया था और वह नक्शे को बार-बार जांचता और संशोधित करता रहता। ब्रिटिश साम्राज्य की सबसे आलीशान इमारत के तौर पर इसका निर्माण होना था, इसलिए लोक निर्माण विभाग का तंत्र पूरी मुस्तैदी से इसमें लगा दिया गया और सन् 1886 में स्थल पर निर्माण कार्य शुरू हो गया था। एक विस्तृत समस्थल बनाने के लिए आब्जरवेटरी हिल के ऊपरी भाग को समतल किया गया था। ऊपरी पतली मिट्टी के नीचे कुचली हुई सलेटी चट्टान थी, जिसमें हर ओर दरारें थीं। इसे सही करने के लिए नींव को मजबूत बनाते हुए, कंक्रीट का भरपूर इस्तेमाल किया गया। आखिर भवन का जो रूप मैदान में बनकर तैयार हुआ, उसका वास्तुशिल्प मोटे तौर पर अंग्रेजी रेनेसां शैली का कहा जा सकता था और यह एलिजा़बेथ कालीन बनावट से प्रेरित था। यद्यपि स्काटिश उच्च भूमि के महलों का निर्माण निश्चय ही अभिभूत करने वाला है। यह भवन हल्के नीले-स्लेटी पत्थर की चिनाई से बना है और इसकी ढलानदार छतों में खपरेल’लगाई गई है।
लार्ड और लेडी डफरिन ने 23 जुलाई 1888 को भवन में प्रवेश किया। बिजली के प्रकाश की नई व्यवस्था को देखकर विशेषकर लेडी डफरिन बड़ी खुश थी। एक पखवाड़ा बीत जाने पर डफरिन परिवार ने पहली दावत दी। इस भवन और इसके अंदर मृदुल प्रकाश को देखकर मेहमान आश्चर्य चकित थे। छियासठ लोग रात्रिभोज में शामिल हुए। यद्यपि बिजली की रोशनी पर्याप्त थी, बावजूद इसके भोजन की मेज पर मोमबत्तियां सजाई गई थीं। मेहमान जब नाचना बंद कर देते, इस बीच वे नए कमरों में चक्कर लगाकर अपना मन बहलाते या पहली मंजिल पर जाकर नीचे चल रही पार्टी का नजारा लेते थे। दरअसल यह भवन इतना विशाल था कि आने वाले सालों में आयोजित नृत्य-पार्टियों के दौरान मेहमानों की संख्या 800 तक हो जाती थी।
वाइसराय भवन का प्रमुख भाग अब तैयार था, जबकि कुछ निर्माण कार्य सितम्बर 1888 तक चलता रहा। वास्तव में लार्ड डफरिन के इस स्काटिश गढ़ में छोटे-मोटे काम तो लम्बे समय तक चलते ही रहने थे, क्योंकि जल्दी में पूरे किए गए काम में कई त्रुटियां रह गई थी। गढ़े गए पत्थरों की सजावट वाला मुख्य ब्लाक तीन मंजिला है जबकि रसोई विंग पांच मंजिला है। भवन पर मीनार ऊँची दिखाई देती है। लार्ड कर्ज़न के कार्यकाल (1899-1905) में इस मीनार की ऊँचाई और बढ़ाई गई। सन् 1927 में लार्ड इर्विन के समय (1926-31) जन-प्रवेश भवन भी जोड़ा गया। उस समय भवन का स्वरूप इसके सभी खण्डों सहित यथा-दृष्टि सुन्दर आकृति में, या विरूपित वास्तुशिल्पीय बनावट में, बन चुका था, जो आज भी मौजूद है। जहां तक कि भवन के भीतर का संबंध है वह व्यापक काष्ठ-कर्म युक्त है, जोकि समय का सही परीक्षण है। दिल्हाबंदी और भित्तिस्तंभ सहित, भारी मध्यस्तम्भ और हैंड-रेलिंग वाली सीढ़ी अनूठी है। इसके लिए बर्मा से सागवान की भारी लकड़ी जहाज पर लाद कर लाई गई थी। जरूरत पड़ने पर इसके स्थान पर स्थानीय देवदार और काष्ठ-नक्काशी की पंसद के अनुसार अखरोट की लकड़ी का भी प्रयोग किया गया था। मार्की कर्जन के समय भवन के दूसरे हिस्सों में भी काफी हद तक नयी सजावट हुई। भोजन-कक्ष में नक्काशी पूरी की गई और चीन सम्राट के सिंहासन के पीछे जो यवनिका लगी होती थी, उसकी प्रतिकृति भी इस कक्ष में लगाई गई। पुराना काउंसिल चैंबर जो बाद में बिलियर्डस रूम बना, उसमें हरेक गवर्नर-जनरल और वायसराय के चित्र टांगे गये थे। भारतीय हथियारों का एक संग्रह मुख्य गलियारे की दीवारों पर सजाया गया था, जहां उन हथियारों की छाप अभी भी देखी जा सकती है।
331 एकड़ में फैली यह एस्टेट मौज मेलों तथा गार्डन पार्टियों के लिए एक शानदार जगह थी। लार्ड लैंडसडाऊन के वायसराय काल में यहां के मैदानों और शाद्वलों के प्राकृतिक-दृश्य निर्माण का बृहद् किन्तु आनंदप्रद कार्य प्रारंभ किया गया। आज भले ही संपदा पहले से छोटी रह गई है, मगर अब भी 110 राजसी एकड़ का भू-भाग है। संपदा के स्टाफ में काम करने वालों की संख्या पहले के 700 की तुलना में अब बहुत कम है। उद्यान का काम अब मात्र 23 लोगों के जिम्मे है। लेकिन दुर्लभ और विदेशी पौधों व घास की अनेक किस्मों का संग्रह पहले की तरह ही दर्शनीय है। उद्यान की सौंदर्यता को प्रकट करने वाला ग्लास हाउस एक तरह का छोटा तीर्थ स्थान है।
दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के समय भारत की दशा उस उबलते कड़ाहे की तरह हो गई थी, जिसमें पहले ही एकाध बार उफान आ चुका था। जून 14, 1945 को वाइसराय लार्ड वेवल ने एक रेडियो प्रसारण में शिमला सम्मेलन की घोषणा की, जिसकी रूपरेखा तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में सुधार लाने और भारत को पूर्ण-स्वराज के अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर करने के लिए तैयार की गई थी। इस सम्मेलन में वाइसराय की कार्यकारी परिषद के पुनर्गठन का प्रस्ताव था। जिसके अनुसार गवर्नर जनरल और कमाण्डर-इन-चीफ को छोड़कर बाकि सभी सदस्य भारतीय होने थे। इन भारतीय सदस्यों की संख्या देश की कुल आबादी में हिन्दुओं व मुसलमानों के अनुपात के आधार पर रखने का प्रावधान था। 25 जून से 14 जुलाई 1945 तक वायसरीगल लाज में यह सम्मेलन हुआ। इस बैठक में भारतीय राजनीतिक नेतृत्व के बहुरंग- महात्मा गाँधी, मौलाना आज़ाद, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, सी.राजगोपालाचारी, मास्टर तारा सिंह और मुहम्मद अली जिन्ना जैसे राष्ट्रीय नेता उपस्थित थे। यद्यपि पूरे सम्मेलन के दौरान महात्मा गाँधी शिमला में रहे मगर कान्फ्रेंस के किसी भी सत्र में व्यक्तिग रूप से हाजिर नहीं हुए। यह कान्फ्रेंस तब तक डगमगाती रही, जब तक वाइसराय सहित हर प्रतिभागी ने इसकी असफलता स्वीकार न कर ली। शायद भारत के विभाजन को रोकने का अंतिम अवसर था जो हाथ से निकल गया था। युद्ध समाप्त हो चुका था और मार्च 1946 में, भारतीयों को अंतिम रूप से सत्ता हस्तांतरित करने के बारे में बातचीत और इसकी प्रक्रिया तय करने के लिए कैबिनेट मिशन को भारत भेजा गया। 5 से 12 मई 1946 के बीच कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अंग्रेजी शासकों के बीच वायसरीगल लाज में त्रिपक्षीय कान्फ्रैंस हुई और कांग्रेस व मुस्लिम लीग फिर से किसी मुद्दे पर सहमत नहीं हो सके तथा देश का विभाजन तय हो गया।

राष्ट्रपति निवास

स्वतंत्रता के पश्चात सन् 1947 में वाइसरीगल संपदा राष्ट्रपति के हाथों में चली गई। इस भव्य भवन का नया नाम राष्ट्रपति निवास पड़ा भले राष्ट्रपति इसका उपयोग वर्ष भर में चंद दिनों के लिए करते थे।

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान

प्रारम्भिक वर्ष

अद्वितीय दार्शनिक-राजनेता प्रोफेसर सर्वपल्ली राधाकृष्णन् तथा देश के प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना के अनुसार 6 अक्तूबर, 1964 को रजिस्ट्रेशन आफ सोसायटी एक्ट, 1860 के अंतर्गत ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान सोसायटी’ का पंजीकरण हुआ। ठीक चौवन सप्ताह बाद प्रोफेसर राधाकृष्णन् ने राष्ट्रपति निवास में इस संस्थान का विधिवत उद्घाटन किया।
संस्थान के ‘मेमोरेडम अव ऐसोसिएशन’ में इसका प्राथमिक उद्देश्य- मानविकी और सामाजिक व प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्रों में ‘अकादमिक शोध के लिए उचित वातावरण उपलब्ध करना’ सामने आया। अपने उद्घाटन भाषण में प्रोफेसर राधाकृष्णन् ने इस बात पर बल दिया कि संस्थान की वचनबद्धता को लेकर यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि ‘सत्य के रूप में हमारे सामने जो प्रकट हुआ है, क्या वास्तव में सत्य है या उसमें किसी तरह के संशोधन की गुजाईश है।’ उन्होंने आगे कहा-‘हमें यथास्थिति का दास बनकर नहीं रहना चाहिए।’
तारागणों का समूह शुरुआत से ही संस्थान का सहयोगी था। भारत के उपराष्ट्रपति डाॅ. ज़ाकिर हुसैन संस्थान की सोसायटी के पहले अध्ययक्ष मनोनीत हुए और श्री एम.सी. छागला, शिक्षा मंत्री भारंत सरकार इसके उपाध्यक्ष थे। संस्थान के पहले निदेशक का कार्यभार प्रोफेसर निहार रंजन रे को सौंपा गया। संस्थान की स्थापना के केवल तीन वर्ष पश्चात सन् 1968 में अधिशासी निकाय द्वारा एक समीक्षा समिति गठित कर दी गई थी। इस समिति ने अपने प्रत्यक्ष वक्तव्य में कहा कि देश का पहला बहु-अनुशासनिक अध्ययन संस्थान अस्तित्व में आ चुका है। समिति ने इस बात पर खुशी ज़ाहिर की कि अध्येताओं को एक रिहायशी छत के नीचे लाकर, संस्थान ने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित विद्वानों विद्वानों के मध्य- विचारों, कार्यविधियों और तकनीकों के आदान-प्रदान को सक्रियता से बढ़ावा दिया है। प्रोफेसर निहार रंजन रे की भरपूर प्रशंसा करते हुए समिति ने सिफारिश की कि संस्थान का रिहायशी स्वरूप, इसकी स्वायत्ता और अकादमिक स्वतंत्रता बरकरार रहनी चाहिए।
उस दौरान संस्थान के अध्येताओं में प्रोफेसर, सीनियर रिसर्च फैलो, जूनियर रिसर्च फैलो, गेस्ट फैलो, गेस्ट फैलो तथा शोधकत्र्ता के वर्ग होते हैं। पुनरीक्षण समिति ने इस अपेक्षाकृत पेचीदा श्रेणीबद्धता को समाप्त करने की सिफाशि के साथ सुझाव दिया कि यहां विद्वानों की एक ही श्रेणी-‘अध्येता’ (फैलो) के रूप में होनी चाहिए। आगे समिति ने विशेष अभिरूचि के क्षेत्रों जैसे- सामाजिक विज्ञान, ऐतिहासिक अध्ययन, दर्शन व साहित्य और शुद्ध गणित की पहचान करने का प्रयास किया। समिति ने सिफारिश की कि व्यक्तिगत स्तर के शोध के अतिरिक्त, विभिन्न अनुशासन के अध्येता, समूह में सांझा शोध भी करेंगे और इस सामूहिक शोध में एक अध्येता का सहयोेग अनुसंधान सहायक भी कर सकते हैं। संस्थान में अध्येताओं की अधिकतम संख्या 50 तय की गई थी। सन् 1969 में ये सिफारिशें अधिशासी निकाय द्वारा मान ली गई थीं। अक्तूबर 1975 में प्राधिकारियों ने माना कि अब संस्थान ‘अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च सृजनात्मक और गुणवत्ता के केन्द्र के रूप में मान्यता पा चुका है’। इसकी उपलब्धियों पर अधिक बल न देते हुए, उन्होंने इतना उल्लेख किया कि ‘भारतीय समुदायों द्वारा अपनी अस्मिता की खोज की दिशा में संस्थान ने साधारण तौर पर योगदान दिया है।’
सन् 1984 में संस्थान की सोसायटी के ‘मेमोरंडम ऑफ एसोसिएशन’ में संशोधन किए गए। अब संस्थान को जीवन और चिंतन के आधारभूत विषयों और समस्याओं के क्षेत्र में स्वतंत्र और मौलिक अन्वेषण के आवासीय केन्द्र के रूप में कायम रखा गया था। संस्थान का प्राथमिक उद्देश्य परिभाषित करते हुए मानवता के लिए गहरी सार्थकता रखनेवाले क्षेत्रों में मौलिक चिन्तन का उन्नयन और राष्ट्रीय सम्बद्धता के क्षेत्रों पर विशेष रूप से संकेन्द्रित करने का उल्लेख किया गया था।

अध्येतावृतियां

संस्थान में मानद अध्येता, राष्ट्रीय अध्येता, टैगोर अध्येता और सामान्य अध्येता जैसी श्रेणियां हैं। मानद अध्येतावृत्ति प्रख्यात विद्वानों को अजीवन प्रदान की जाती है। वे साल में एक बार संस्थान में अपना व्याख्यान दे सकते हैं। राष्ट्रीय अध्येताओं की अवधि दो वर्ष की रहती है। नियमित अध्येताओं की अवधि छः महीने से लेकर दो वर्ष तक होती है। यह कार्य की प्रगति पर निर्भर करता है। प्रारंभिक तौर पर अध्येताओं को एक वर्ष का समय दिया जाता है।
जबकि संस्थान के अध्येता मुख्यतः संस्थान द्वारा अनुमोदित विषय-वस्तु के शोध-कार्य में व्यस्त रहते हैं, अंतर्विषयक संवाद को गति प्रदान करने के लिए उन्हें संस्थान के अन्य अध्येताओं के साथ परस्पर औपचारिक अनौपचारिक विचारणीय अंतःक्रिया भी करते हैं। अध्येताओं द्वारा प्रस्तुत वीरवारीय साप्ताहिक संगोष्ठी इस औपचारिक विचार-विमर्श का एक प्रमुख मंच है। अध्येतावृति की इस अवधि में अध्येता अप्रैल से नवंबर तक आवास में रहते हैं तथा सर्दियों में दिसंबर से मार्च तक उनके लिए शिमला से बाहर कार्यक्षेत्र तथा पुस्तकालय व ग्रंथरक्षा गृह परामर्श हेतु जाने का विकल्प है। कार्य अवधि के अंत में अध्येताओं को अपना पूर्ण शोध कार्य मोनोग्राफ के रूप में संस्थान को प्रस्तुत करना होता है। उनके द्वारा प्रस्तुत मोनोग्राफ को संस्थान द्वारा प्रकाशित करने पर विचार किया जाता है। प्रकाशन पर पहला अधिकार संस्थान का ही होता है।
अध्येताओं के अतिरिक्त अन्य विद्वान भी संस्थान में अपना योगदान देते हैं तथा संस्थान में प्राप्त सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। वे मुख्यतः अतिथि प्रोफेसर, अभ्यागत विद्वान, अतिथि अध्येता तथा अतिथि विद्वान के रूप में संस्थान में पधारते हैं। अतिथि प्रोफेसर प्रख्यात विद्वान होते हैं, जिन्हें संस्थान की शासी निकाय द्वारा आमंत्रित किया जाता है। उन्हें संस्थान में दो-तीन व्याख्यान देने होते हैं तथा संगोष्ठियां आयोजित करनी होती हैं। संस्थान में चार सप्ताह तक प्रवास के दौरान उन्हें संस्थान के अध्येताओं के साथ औपचारिक अंतःक्रिया करनी होती है। वैसे अतिथि विद्वान भी संस्थान के आमंत्रण पर पधारते हैं। अतिथि प्रोफेसरों की भांति वे भी अपने-अपने क्षेत्रों में लब्धप्रतिष्ठित होते हैं मगर वे संस्थान में एक सप्ताह की सीमित अवधि तक प्रवास करते हैं। इस दौरान उन्हें संस्थान की तरफ से सभी सुविधाएं उपलब्ध की जाती हैं। अतिथि विद्वान आवास की उपलब्धतता तथा उसके किराये के भुगतान के आधार पर पधारते हैं तथा वे नाममात्र भुगतान राशि पर संस्थान के पुस्तकालय का प्रयोग भी कर सकते हैं।
संस्थान के स्वभाव के अनुकूल इसके अकादमिक कार्यकलाप में अध्येताओं द्वारा यथासमय किया जाने वाला शोध-कार्य आता है। समय-समय पर संस्थान बहुविधात्मक शोध परियोजनाओं पर भी कार्य करता है जिसमें विभिन्न वर्गों के विद्वान एक टीम के रूप में कार्य करते हैं। संस्थान प्रतिवर्ष समसामयिक सम्बद्धता तथा मूलभूत सैद्धान्तिक महत्व पर अनेक अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियों, कार्यशालाओं, सम्मेलनों, परिसंवाद, साप्ताहिक अध्ययनों का आयोजन करता है। इन संगोष्ठियों में विश्व भर से प्रतिष्ठित विद्वान भाग लेते हैं।
संस्थान की अध्येतावृति के लिए देश भर में विज्ञापित किया जाता है। यह अध्येतावृति शासी निकाय द्वारा अध्येतावृति निर्णय समिति की सिफारिशों पर प्रदान की जाती है जो निदेशक को विद्वानों की योग्यता सूची व परियोजनाओं को निर्धारित करने में सहायता प्रदान करती है। इस समिति में विभिन्न विषयों से संबद्ध विशेषज्ञ शामिल होते हैं। यह एक विविध स्तरीय चयन प्रक्रिया है। आवश्यक नहीं कि यह प्रक्रिया विज्ञापनों के प्रत्युत्तर तक ही सीमित रहे। संस्थान निदेशक, शासी निकाय, तथा सोसायटी के सदस्यों द्वारा सुझाए गए विख्यात विद्वानों के नामों पर विचार करने के लिए भी स्वतंत्र है। क्षेत्रीय तथा उप-क्षेत्रीय प्रयासों के आधार पर भी प्रतिभा की पहचान की जा सकती है। यह अध्येतावृति अंततः शासी निकाय द्वारा अध्येतावृति निर्णय समिति की सिफारिशों पर प्रदान की जाती है। इस समिति में विभिन्न विषयों से संबद्ध विशेषज्ञ शामिल होते हैं। शासी निकाय किसी भी सुविख्यात विद्वान को अध्येता के रूप में आमंत्रित कर सकती है।

अध्ययन क्षेत्र

सस्थान के मेमोरंडम ऑफ एसोसिएशन में अब कुछ ऐसे परिप्रेक्ष्यों की पहचान स्पष्ट कर दी गई है जिनसे विभिन्न क्षेत्रों में शोधकार्य को दिशा मिल सकती है। अनुसंधान के क्षेत्र ऐसे होने चाहिए जो अन्तर्विषयक शोध को बढ़ावा दे। शोध के विषय ऐसे हों जिनके लिए अपेक्षित प्राथमिक सुविधाएं अधिक मंहगी न हों और विषयों का गहरा मानवीय सरोकार होना चाहिए। इस धारणा को आगे बढ़ाते हुए, शोध के प्रमुख क्षेत्र ऐसे हों जिनके प्रति विशिष्ट विद्वान प्रारंभिक चरणों में ही आकृष्ट हो जाएं, अंतर-विषयक अन्वेषण के लिए प्रणालीगत ढांचे का विकास हो और कृत-कार्यों में ऐसी गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए जो भाविष्य में इस तरह के प्रयासों को और अधिक क्षेत्रों में विस्तार देने को प्रोत्साहित करे-बशर्ते, परियोजनाओं के चयन में राष्ट्रीय सम्बद्धता की दिशा में ध्यान दिया गया हो।
संस्थान ने अध्ययन के लिए निश्चित क्षेत्र परिभाषित कर दिये हैं। ये मोटे तौर से इन शीर्षों के अंतर्गत आते हैं- सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक दर्शन; भारतीय तुलनात्मक साहित्य (जिसमें प्राचीन मध्यकालीन, आधुनिक, लोक और आदिवासी-साहित्य भी हो); दर्शन और धर्म का तुलनात्मक अध्ययन; वैश्विक मत का विकास; शिक्षा, संस्कृति और कला, जिसमें निष्पादन कलाएँ और हस्तशिल्प भी हों; तर्क और गणित की मौलिक अवधारणाएँ और समस्याएँ; प्राकृतिक और सामाजिक (जीवन) विज्ञानों की मौलिक अवधारणाएँ और समस्याएँ; प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण का अध्ययन; एशियाई पड़़ोसियों के संदर्भ में भारतीय सभ्यता; और राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में समसामायिक भारत की समस्याएँ।
शोध के कुछ क्षेत्र विशेष ध्यानाकर्षण के लिए चिह्नित किए गए हैं; अनेकता में भारतीय एकता; भारतीय चेतना की अनिवार्यता; भारतीय प्ररिप्रेक्ष्य में शिक्षा का दर्शन; प्राकृतिक विज्ञानों में उच्च अवधारणाएँ और उनकी दार्शनिक आशय; विज्ञान और अध्यात्म के संश्लेषण में भारत और एशिया का योगदान, भारतीय मानव एकता, भारतीय साहित्य एक परिचय, भारतीय महाकाव्यों का तुलनात्मक अध्ययन, मानवीय पर्यावरण का तुलनात्मक अध्ययन भी इसी दायरे में आता है।

अन्तर्विश्वविद्यालय केन्द्र

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की योजना के आधार पर भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में अप्रैल 1991 में मानविकी व सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन के लिए एक अन्तर्विश्वविद्यालय केन्द्र ने कार्य करना आरम्भ किया है। इस केन्द्र के कार्यक्रमों में एक कार्य महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों से प्राध्यापकों को संस्थान में आवासीय सह-अध्येताओं के रूप चयन करना है। उनकी अविधि तीन वर्षों के लिए प्रति वर्ष एक-एक माह की होती है। वे संस्थान के अध्येताओं व अन्य विद्वानों के साथ विचार-विमर्श करने के साथ-साथ अपना शोध-कार्य भी करते हैं। इस केन्द्र के सभी सह-अध्येता संस्थान की सभी अकादमिक गतिविधियों में प्रतिभागिता करते हैं।
इस केन्द्र के दो अन्य कार्यक्रम भी हैं। प्रथमतः मानविकी तथा सामाजिक विज्ञानों में नई शोध संगोष्ठियाँ हैं जोकि विशेषकर विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के कनिष्ठ शोधकर्ताओं के लिए होती हैं। द्वितीय कार्यक्रम में ‘अध्ययन सप्ताह’ है जो महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों के वरिष्ठ प्राध्यापकों के लिए होता है। जिसमें राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्व की समसामयिक समस्याओं पर विचार करने हेतु अन्य प्रतिभागियों को भी आमंत्रित किया जाता है।

टैगोर सेन्टर

गुरूदेव रबीन्द्रनाथ की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत सरकार के मानव संसाध विकास मंत्रलाय ने संस्कृति एवं सभ्यता के अध्ययन के लिए संस्थान को टैगोर सेंटर की संस्थापना से नवाजा। जैसा कि संस्थान का यह अधिदेश था कि ‘प्रथम सिद्धांत तथा विशेष विस्तारपूर्वक नहीं’, गूढ़ और बाह्य के बीच गहन विमर्श, घर और संसार के मध्य, भूत और वर्तमान में सतता के बारे में, तथा दोनों की भविष्यात्मक संभवानाएं जिनके लिए टैगोर ने जीवन पर्यन्त संघर्ष किया उनके लिए यह एक उपयुक्त स्थान है। अतः टैगोर के कार्याें तथा विचारों के मद्देनज़र यह केन्द्र एक ऐसा मंच प्रदान करता है जहां मनीषी का स्वप्न, कवि की भावनाएं, कलाकार की सृजना, शिक्षाविदों की सोच, दर्शनशास्त्रियों के प्रश्न, विजेताओं की अकांक्षाओं तथा अन्तर्राष्ट्रीयतावादियों की उम्मीदों को एक अवसर मिलता है।
टैगोर सेंटर से जाना जाने वाले इस केन्द्र का उद्देश्य सिर्फ टैगोर के कार्यों एवं विचारों का अध्ययन करना ही नहीं है बल्कि यह तो इसकी आवश्यक गतिविधियों का एक भाग है। क्योंकि यह केन्द्र टैगोर की सार्वभौमिक प्रख्याति के प्रति समर्पित है, अतः यह कला, काव्य तथा संगीत के नए मुहावरों के अन्वेषण द्वारा मानवीय परिस्थितियों के साथ विचारशीलता तथा सर्जना को अवसर प्रदान करेगा। इस प्रकार इस केन्द्र ने विद्वानों के अतिरिक्त अभ्यासरत कलाकारों को एक मंच उपलब्ध करवाया है ताकि वे टैगोर की संस्कृति और सभ्यता की अवधारणा के साथ गहन वचनबद्धता को आगे ले जाएं, जो उनके विश्व एकात्मकता के मत पर आधारित है। इसी मत प्रबलता के कारण वे विभिन्न संसाधनों को सर्जनात्मकता के साथ अन्वेषण कर सके, जिसकी वजह से भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति की विभिन्न परतों तथा उसके पहलुओं का निर्माण हुआ। टैगोर के बौद्धिक विकास तथा उनकी चेतना ने उन्हें अपने भीतर तथा अन्य पारम्परिक विचारों से मानववादी, सदाचारी, सार्वभौमिक, उदारवादी, विकासशील प्रवृति तथा संकीर्णता, गतकालिकता, रूढ़िवादिता, तथा प्रतिगामिता का परित्याग के प्रति दृढ़ता से टिके रहने के लिए मदद प्रदान की ।
समसामयिक बौद्धिक जीवन व्यापक व संकीर्ण, विकास और पिछड़ेपन जैसी अवधारणाओं का सामना कर रहा है तो ऐसी अवस्था में टैगोर सेंटर भारत और विश्व के लिए संवाद का एक उपयुक्त स्थल सिद्ध होगा। इस केन्द्र ने दक्षिण-दक्षिण बौद्धिकता एवं संस्कृति के आदान-प्रदान की भी शुरूआत की है। अतः आज जो संस्कृति और सभ्यता के अध्ययन के प्रयासों से संबद्ध पिछडे़पन व्याप्त है उसे दूर करने के लिए एक खुले मंच के रूप में बड़े सोच विचार के साथ इस केन्द्र की स्थापना की गई है। शास्त्रीय से लोक संगीत, परम्परागत और आधुनिक के साथ, विज्ञान और मानवता के साथ टैगोर की सर्जनात्मक के प्रति वचनबद्धता की आत्मा इस केन्द्र में संचालित कार्यक्रमों के नियोजन की दिशा में मार्गदर्शी शक्ति है। इस केन्द्र द्वारा संस्कृति एवं सभ्यता से जुड़े उन लोगों को लघु/दीर्घकालीन अवसर प्रदान किया जाता है जो उन समकक्ष मुद्दों से संबद्ध हैं जो टैगोर को शिक्षा, पर्यावरण, विकास, राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक प्रभावों, सामंजस्य, विज्ञान और समाज में तल्लीन मानते हैं। यही वचनबद्धता अथवा उनके साहित्य कल्पना अथवा संगीत, नृत्य तथा चित्रकला, अथवा शहरी और ग्रामीण संदर्भ में शिक्षा और पर्यावरण संबंधी प्रगतिशील विचारों की व्यवसायिकता, अथवा साधारणतः उनकी दूरदर्शिता की व्यापक तात्प्र्यता और संवभावनाओं टैगोर के कार्यों के मौलिक अध्ययन से सम्बन्ध रखती है।

केन्द्र की गतिविधियां

· इस केन्द्र के अंतर्गत प्रति वर्ष चार आवासी अध्येता अध्ययन करते हैं। कोई भी अध्येता यहां पर स्थाई नहीं है। वे संस्थान में न्यूनतम छः माह और अधिकतम दो वर्ष की अवधि के लिए आते हैं। वे संस्थान के अन्य अध्येताओं की भांति संस्थान में उपलब्ध सुविधाओं का आनंद उठाते हैं। इन अध्येताओं में से टैगोर की बहुमुखी प्रतिभा को श्रृद्धांजलि के मद्देनज़र या तो कोई कवि, अथवा लेखक, आवासी कलाकार होता है। अन्य अध्येता भारत से बाहर का विद्वान होता है। ये सभी अध्येता टैगोर फैलोज के नाम से जाने जाते हैं।
· इस केन्द्र के अंतर्गत टैगोर से संबद्ध किसी विषय पर एक अंतर्राष्ट्रीय वार्षिक व्याख्यान का आयोजन किया जाना प्रस्तावित है जो संभवतः टीका संबंधी प्रकृति का न होकर मगर मूल वचनबद्धता से संबद्ध होगा जैसा कि दूरदर्शिता के अभिलेख में निहित है।
· हर वैकल्पिक वर्ष के दौरान टैगोर के कार्यों से संबंधित एक अध्ययन सप्ताह का आयोजन किया जाना भी प्रस्तावित है।
· संभवतः हर वैकल्पिक वर्ष के दौरान कला शिविर भी लगाया जा सकता है।
· एक वार्षिक व्याख्यान भी आयोजित किया जाएगा।

पुस्तकालय तथा प्रकाशन

संस्थान को 400 से अधिक प्रकाशनों का श्रेय प्राप्त है। इन प्रकाशनों में अध्येताओं द्वारा प्रस्तुत और विशेषज्ञों द्वारा पारित मोनोग्राफ, संगोष्ठियों की संपादित कार्यवाही, संस्थान में आयोजित गोष्ठियों तथा सम्मेलनांे, आगन्तुक प्राफेसरों द्वारा दिये गए व्याख्यानों तथा आगंतुक विद्वानों द्वारा प्रस्तुत प्रासंगिक शोध-पत्र आदि शामिल हैं। संस्थान समरहिलः आईआईएएस रिव्यू तथा अंतर विश्वविद्यालय केन्द्र के अंतर्गत स्टडीज़ इन ह्यूमैनिटीज़ एण्ड सोशल साइअन्सिस अर्घवार्षिक पत्रिकाओं का भी प्रकाशन करता है।
संस्थान का पुस्तकालय देश में अपनी तरह का उत्तम पुस्तकालय है। इसके संग्रह में लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों जैसे- आर.सी. मजूमदार, अब्दुल माज़िद खान, एच.सी. रे चौधरी तथा अजीत घोष और सर तेज बहादुर सपरू के निजी संग्रह भी शामिल हैं। लगभग 40 वर्षों की इस विकास यात्रा में पुस्तकालय में 1.50 लाख से भी अधिक पुस्तकें, पत्रिकाएं, माईक्रो फिल्म तथा अन्य प्रलेख हैं। वर्तमान में लगभग 320 पत्रिकाएं मगवाई जाती हैं।
यह संग्रह मुख्यतः दर्शन, धर्म, ललित कला, समाजिक-भाषाशास्त्र, मनो-भाषाशास्त्र, सामाजिक और सांस्कृतिक मानव शास्त्र, सामाजिक आर्थिक योजना और विकास, तृतीय विश्व अर्थशास्त्र, प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय साहित्य और संस्कृति और आधुनिक भारतीय इतिहास, राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था पर आधारित है। पत्रिकाओं के पुराने अंकों को उपयोगकर्ताओं द्वारा विशेष रूप से सराहा गया है। पुस्तकालय की प्रमुख कार्यप्रणाली को कम्प्यूटरीकृत कर दिया गया है तथा इन पुस्तकों के डेटाबेस को डैलनेट के माध्यम से भी देखा जा सकता है। पुस्तकालय के प्रयोगकर्ताओं को इंटरनेट सुविधा भी प्रदान की गई है।
संस्थान के काम के स्तर और इससे सहयोजित विद्वानों की आभा का परिचय, उदाहरण के तौर पर, राधाकृष्णन स्मारक व्याख्यानमाला के रूप में मिलता है।

प्रशासन

संस्थान का प्रशासन एक सोसायटी तथा शासी निकाय द्वारा चलाया जाता है। संस्थान की सोसायटी तथा शासी निकाय के सदस्य विभिन्न क्षेत्रों से चयनित किए जाते हैं। संस्थान की एक वैधानिक वित्त समिति है जिसमें शिक्षा व वित्त मंत्रालय के प्रतिनिधि सदस्य होते हैं, जो प्रबन्ध समिति को वित्तीय मामलों में परामर्श देते हैं।
संस्थान का नेतृत्व निदेशक करते हैं जिन्हें प्रशासकीय, वित्तीय तथा अकादमिक मामलों में सचिव अपना सहयोग देते हैं। इसके अतिरिक्त संस्थान में एक उपसचिव (प्रशासन), एक पुस्कालयाध्यक्ष, एक लेखा अधिकारी, एक प्रकाशन अधिकारी, एक जनसंपर्क अधिकारी तथा अन्य पर्यवेक्षी व सहायक स्टाफ होता है।
संस्थान मुख्यतः भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा वित्त प्रबंधित है। इसके अतिरिक्त संस्थान अपने प्रकाशनों की बिक्री तथा पर्यटकों से वसूल की जाने वाले प्रवेश शुल्क से भी थोड़ी-बहुत आमदन का सृजन करता है।
संस्थान के कार्यकलापों की गुणवत्ता तथा इससे संबद्ध विद्वानों के प्रालेख का एक उदाहरण संस्थान द्वारा आयोजित किए जाने वाली राधाकृष्णन् स्मृति व्याख्यान हैं।

वाइसराय और गवर्नर जनरल

वाइसराय और गवर्नर जनरल तथा उनका कार्यकाल जिन्होंने वाइसरीगल लाज, शिमला में निवास किया

1. मार्की अव डफरिन, 1884-88
2. मार्की अव लैंसडाउन, 1888-94
3. अर्ल अव एल्गिन, 1894-99
4. मार्की कर्जन, 1899-1904 एवं 1904-05
5. अर्ल अव मिन्टो, 1905-10
6. लार्ड हार्डिंग अव पैन्जहस्र्ट, 1910-16
7. वाइकाउन्ट चैम्सफर्ड, 1916-21
8. मार्की अव रीडिंग, 1921-26
9. लार्ड इरविन, अर्ल अव हैलिफैक्स, 1926-31
10. मार्की अव विलिंगडन, 1931-36
11. मार्की अव लिंलिथगो, 1936-43
12. अर्ल वेवल, 1943-47
13. अर्ल माउंटबेटन, अप्रैल-अगस्त, 1947