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“समाज, साहित्य और संस्कृति का अन्तर्सम्बन्ध”

सारांश

समाज प्रत्येक व्यक्ति का आधार होता है, इसीलिए समाजशास्त्रियों ने कहा है कि व्यक्ति सामाजिक प्राणी होता है। जब समाज प्रगति करता है और स्वस्थ जीवन- मूल्यों की स्थापना समाज में होने लगती है, तो समाज में सौहार्द्र और आपसी तालमेल बढ़ जाता है।तब समाज एकजुटता और परस्पर सहयोग के बंधनों में बंध जाता है। यही वह समय होता है,जब व्यक्ति अपने आप से हट कर दूसरों के हित की भावना से भर जाता है। यही वह समय होता है,जब समाज में व्यक्ति “स्वार्थ” से ऊपर उठ कर “परमार्थ” की ओर बढ़ता है।

यही भावना व्यक्ति के हृदय में संवेदनाओं को जन्म देती है और व्यक्ति समाज में रहने वाले दूसरे व्यक्तियों के विषय में भी उसी प्रकार सहानुभूति और लगाव को महसूस करता है,जो वह अपने परिवार के लिए महसूस करता आया है।

संवेदनाएँ व्यक्ति को अनुभूतियों का वरदान देती हैं और तब व्यक्ति अपनी भावनाओं को व्यक्त करना चाहता है। आपने सुना ही होगा कि आदिकवि वाल्मीकि ने जब क्रोंच के जोड़े में से नर पक्षी को शिकारी द्वारा मार दिए जाने पर मादा क्रोंची का विलाप सुना तो उनकी करुणा जाग उठी और उन्होंने व्याध को श्राप देते हुए अनायास ही छंद कह दिया,जो संसार का प्रथम छंद कहा जाता है।

महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है-

“वियोगी होगा पहला कवि,

आह से उपजा होगा गान।

निकल कर आँखों से चुपचाप,

बही होगी कविता अनजान।”

व्यक्ति जब भावनाओं के सागर में डूब जाता है, तब उस के हृदय से कविता अर्थात साहित्य जन्म लेता है। यह साहित्य ही समाज को परस्पर सौहार्द्र और अपनत्व से जोड़ता है और व्यक्ति स्वयं को समाज का अभिन्न अंग मानकर समाज के “हित” को ही अपना हित मानता है।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने बहुत बड़ी बात कही है जो साहित्य के व्यापक लक्ष्य को इंगित करती है-

“निज हेतु बरसता नहीं,

व्योम से पानी।

हम हों समष्टि के लिए,

व्यष्टि बलिदानी।”

अर्थात जिस प्रकार आकाश से बारिश का पानी अपने लिए नहीं बरसात,उसी प्रकार हमें भी व्यक्तिगत हित से हटकर समष्टिगत हितों के लिए जीना चाहिए।

जब समाज में साहित्य का स्तर ऊँचा होने लगता है,तब उच्चतर जीवन-मूल्य समाज में बढ़ने लगते हैं और व्यक्ति का चिंतन व्यापक हो जाता है। इस से व्यक्ति के हृदय में व्यापकता

और विशालता आती है, तो उसका चिंतन भी विशाल और व्यापक हो जाता है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति का चिंतन व्यापक होता है,उसके जीवन के संस्कारों में भी व्यापकता आती है और तब मानव की संस्कृति में भी उच्चता दिखाई देती है।

वास्तविकता यह है कि समाज यदि उच्चता की ओर बढ़ता है, तो साहित्य भी व्यापक चिंतन से पूर्ण हो जाता है।जब साहित्य व्यापक चिंतन और श्रेष्ठतम विचारों को अभिव्यक्त करता है,तो संस्कृति भी व्यापक हो जाती है। यदि समाज,साहित्य और संस्कृति का अन्तर्सम्बन्ध है। जब-जब ये सकारात्मक चिंतन से पूर्ण होते हैं, तब- तब व्यक्ति और समाज प्रगति के पथ पर चलते हैं और जब भी इनमें तारतत्म्य नहीं रहता, तब साहित्य और संस्कृति का ह्रास होने के कारण समाज का भी पतन होने लगता है।